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कलम और तलवार -एक नया नजरिया

kavita
kavita
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जब कलम की धार हो साथ तो तलवार क्या है
छेद के दिल को साँसों में घुल जाती है
कोई उफ़ नही होती कोई आवाज़ नही आती

मैं कलम हूँ तलवार नही
धीरे धीरे ज़ज़्ब हो कर
भावनाओ में रौशनाई में
कुछ लिखती हूँ ठहर ठहर
थम थम कर
दिमाग पढ़ कर दिल बदलती हूँ
कुछ रचनाएं देती हूँ
हाथ तुम्हारे शब्द मेरे
तुमतलवार हो ,तुम ताकतवर हो?
भ्रम है तुम्हारा ;
सीधे छेद जाते हो ,चाक कर जाते हो सीना
अपनी पैनी धार से ;
लहू घुल जाता है साँसों में ,
पर जिजीविषा है -मरती नही मैं ;
उस लहू को रौशनाई बना कर,
लिख चुकी तूम्हारी तकदीर ;मैं ,
मेरी रचनाएं ही तो हैं
भाग्य लेख
तुम्हारा —
धीरे धीरे दौड़ता ये लहू समां जाता है
तुम्हारी भी रगो में ,
तुम्हारी सोच ,अब तुम्हारी रही कहाँ–
उसपर तो छा चुकी मैं ,मेरी रचनाएं ,
तुम तलवार हो -ताकतवर हो ,भ्रम है तुम्हारा —
नही बनना मुझको तलवार ,मैं कलम ही सही
तुम तलवार ही रहो
तुम्हें जूझना है समाज से ,दुनिया से ,
मेरे लिए ,मेरी रचनाओं के लिए ,
मैं तलवार जो बनी, मिट जाएंगी रचनाएं मेरी
बहुत प्रिय हैं मुझे , शायद तुम्हें भी —
कोई प्रश्नचिन्ह नहीं ,मगर फिर भी; शायद —
मुझे नही बनना तलवार, मैं कलम ही भली
धीरे धीरे घुलते- घुलते
घुल जाती हूँ साँसों में ,सोचों में ,धड़कन में ;
बेशब्द ,बे आवाज़ बिना चीख- पुकार
मैं एक औरत, एक सोच
कमजोर(—-?) सी —

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