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दो पाँव
सीढ़ी से चल के
लहरों तक–
सालों साल ;
अनवरत ;
उन कदमों की आह्ट
अब कहाँ है –?
खामोश किनारे पूछते हैं ,
बहती तरंगें पूछती हैं ,
माँ तू -अब कहाँ है ?
वो सुबह वो विहान –
अब कहाँ है ?
वो पूजा की घंटी –
अब कहाँ है ?
वो शिवाला के घंटे,
वो आरती की गूंजें ,
वो आँखों के आंसू ,
–पूछते हैं ;
तू कहाँ है?
माँ, अब तू कहाँ है ?वो काशी की अस्सी
वो अस्सी के घाट
वो घाटों की सीढ़ी
वो सीढ़ी से सट के बहती
नदिया की लहरें –
आज भी;
ढूंढती हैं ,पहचानती है मुझको ;
तेरे ही नाम से ,
सूंघती हैं स्नेह से माथ मेरा
और पूछती हैं ;बिटिया
अब तेरी माँ कहाँ है –?
क्या बताऊँ मैं उनको
कि क्या समझाऊँ -तू कहाँ है ?
कभी यूँ ही रातों में
चिहुंक कर –
जग जाती हूँ जब भी
दुनिया की उलझन से
थक जाती हूँ जब भी ;
उलझ जाऊं कहीं
या डर जाती हूँ जब भी
हौले से ;
महसूस करती हूँ तुझको
अंदर किसी कोने में
और पूछती हूँ खुद से
तू कहाँ है माँ –?
आज तू याद आती है बहुत
धीरे से कानो में कह जा माँ —
–आज तू कहाँ है ?
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