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घर के कुछ खाली सामानो का
मुज़ाहिरा करते सोचा
घर में कुछ तब्दीली करते सोचा
कांच के सामानो को उठाते सोचा
ये वहाँ क्यों नहीं जहां इसे होना चाहिए -अब ?
ये वैसे क्यों नहीं –
जैसे उसे रखना है अब -?
ऐसा तो पहले भी हो सकता था —
फिर ये जगह क्यों बदलूं-?
कहीं कुछ गलत तो नहीं -?
तब भी तो कुछ सोचा होगा पहले –
जब सामान जमाया होगा
जब ये सामान आया होगा –
तब क्यों नहीं –अब क्यों ?
हाँ —तब भी तो कुछ सोचा ही होगा
एहतियातन –इतना कीमती नाज़ुक
किसी अहसास सा गुलदान है —
किसी घर की इज़्ज़त की तरह
आखिर -कांच का सामान है —
कुछ परिस्थितियों ,कुछ परिवेश पे
नज़र डाली होगी कुछ खतरों का भी
मुलाहिज़ा किया होगा ;बज़ाहिर
कुछ मुसीबतों का भी सामना किया होगा
तब ये जगह बनाई होगी –
मगर अबतो परिस्थितियां बदल गयीं
हालात बदल गए हैं
जगहात बदल गयीं वज़हात बदल गए हैं
क्या अब भी वही जगह मुनासिब है -नहीं ना ?
तब के फैसले अब गलत हो भी सकते हैं -!
जगहें हालात परिस्थितियां बदल जाती हैं
तो निर्णय भी बदलने होंगे
कांच हो या के लड़की
लड़की हो या के मज़हब
मज़हब हो या के समाज
समाज हो या के उसूल -बदलने होंगे
ज़िंदगी जीनी है तो हालात बदलने होंगे
कुछ गिरहें खोलनी होंगी
कुछ बंधन खोलने होंगे
खुली आँखों से देख कर
ज़माने को चलना होगा –
पिछड़ जाये न रफ़्तार कहीं
ये सोचना होगा
धर्म मज़हब की रवायतें अपनी जगह हैं
कुछ दिल को देखो कुछ तो
दिमागों को खुला रखना होगा
इस दुनिया को बदलना होगा अब तो
इस दुनिया को बदलना होगा
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