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हमारे एक मित्र ने लिखा “कैसा वक़्त है कि कैसे वक़्त का रिवाज़ है कि हम क़रीबी सगे रिश्ते में भी किसी की विपत्ति में उसके पास तब जाते हैं जब वह दुनिया से विदा होने के लिए अपने बोरिया -बिस्तर समेट चुका होता है !हम कितने खोखले और नकली जीवन जीने के अभ्यस्त हो चले हैं !हमारे पास कितनी कम सहानुभूति बची है !ज्यादा पढ़े -लिखे लोगों में वह ‘कम ‘भी बची रहे तो गनीमत है !पिछली गर्मियों में जब मैं गंभीर रूप से बीमार पड़ा तो ऐसे -ऐसे स्वजनों के फोन आये जो कभी भूले भी याद नहीं करते थे !इतनी इंसानियत भी कम है क्या? ”
क्या वाकई ,?वाक़ई हम इतने हृदयहीन हो गए हैं की रिश्तों की आंच हम तक पहुँचती ही नहीं मुझे अपने बारे में ऐसा नहीं लगता आपको खुद के बारे में ऐसा लगता है क्या ?
वक़्त का रिवाज़ या वक़्त की कमी –आज की दुनिया में वक़्त है किसके पास? हर आदमी लगा है अपनी चादर को खींच खांच कर किसी तरह तन ढंकने में ,चादर उघड़ने न पाये ;दुनियावी ज़रूरतें इतनी बढ़ गयी हैं की एक कमाई में गुजारा मुश्किल ,दोनों कमाएं तो बच्चों की देखभाल मुश्किल, परिवार एकल हो गए हैं ,कहीं जाना हो तो छुट्टी की मुश्किल ,इन मुश्किलों को हल करते करते साल में एकाध मौका मिला तो बच्चों की जिद,कुछ अपना भी मन; चलो घूम आते हैं फिर वक़्त मिले न मिले. करीबी रिश्तेदार -माँ, पिता , भाई ,बहन भी अब परिवार नहीं रिश्तेदार हो गए हैं ,जहां जाना मिलना एक फ़र्ज़ सा हो गया है वक़्त कहाँ से निकले -भावनाएं नहीं मरी, दब सी गयी हैं बस -एक बार मिलिए न किसी फंक्शन में ,पारिवारिक माहौल में, छोड़ के जाने का दिल नहीं करता,लगता है अब तो बार बार आएंगे ,मिलेंगे –एक बार वापस रूटीन में पहुंचे नहीं की बस फिर वही ——-जिए जाने की रस्म जारी है –का सिलसिला शुरू –क्या कहा जाए ,कैसे उबरा जाए ,संबंधों के इस खालीपन से !
सच है की दायरे बढ़ गए हैं, परिवार से अधिक बहुत से और सम्बन्ध ज़रूरी हो गए हैं ,मगर ज़रूरी तो हैं न — ज़रूरतों का निर्धारण व्यक्ति और परिस्थितियां करती हैं ,हम उनसे तो भाग नहीं सकते .अपने दायित्वों से मुंह मोड़ कर सिर्फ रिश्ते तो निभा नहीं सकतेl ये भी उतना ही कड़वा सच है की अगर आप असफल हैं अपने पारिवारिक, सामाजिक और विशेषतया आर्थिक दायित्वों को निभाने में तो आपके अपने ही सबसे पहले कतराने लगते हैं और आपको इस कमतरी का बोध कराने में तनिक संकोच नहीं करते –तो फिर क्या ज़रूरी है –खुद सोच लें …….
बहरहाल ,मसला दुनिया को वापस लौटा के संयुक्त परिवार तक ले जाना नहीं है; मसला है मिलने मिलाने का, रिश्ते निभाने का . बहुत आसान है, एक ग्रुप बनाएं जिनसे आप बार बार मिलना चाहते हैं ; किसी त्यौहार ,किसी फंक्शन में, किन्ही छुट्टियों में ,एक बार मिल लें lखर्चे किसी एक पर न डाल कर साझा कर लें ,बस वैसे ही जैसे बहु चर्चित ,बहु आलोचित (नहीं जानती की ये शब्द कहीं सिर्फ मेरी उपज तो नहीं –सॉरी )किटी पार्टीज़ में होता है या जैसा की पहले लिखा जाता था “इस खत को तार समझना और फ़ौरन चले आना “अब फ़ौरन चले आना तो संभव नहीं मगर मेसेज और व्हाट्सऐप को ही आपकी उपस्थिति और आपसे जुड़ने का दर्ज़ा दिया जा सकता है –जुड़े तो हम तब भी हैं ——नहीं क्या ?
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