kavita
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आँधियाँ दूर की हवाएं बन के मिलती थीं आग जंगल की थी तो तपन उसकी भली लगती थी
आज घर अपना जला तो आशियाने की कमी खलती है तेज़ हवा भी तीर के मानिंद चुभती है
दोस्त कहते भी हो कुदरत को और रुलाते भी हो खंजर उसके सीने में उतारे जाते हो
जीना दुश्वार किये जाते हो चुप रहने की सहने की सजा तुम उसको दिए जाते हो
अपने पे जो आई कुदरत तो खुदा याद आया कहर उसका जो बरपा तो खुदा याद आया
हर वार पे उसके तुमको ख़ुदा याद आया उसने तो वही लौटाया जो तुमने usko दिया है
अब भी सम्हल जाओ तो शायद कुछ बात बने और ज़ख्म न लगाओ तो शायद कुछ घाव भरे
अब भी न रुके तो डर डर के ही जीना होगा हर एक कदम पे आगे मौत से सामना होगा
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