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बंधन रेख

kavita
kavita
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मैं सीता नहीं सती नहीं सावित्री नहीं
कोई चाहत लोई ख्वाहिश भी नहीं
कोई राम किसी शिव का भी तो पता दो मुझको
दोहरी मानसिकता में जीते हुए लोग
और सिन्दूर की लक्ष्मणरेखा में कैद मन
कब आज़ाद होंगे हम
कब आज़ाद होंगे मन
ऐसी ही इक रेख और बनाओ न ;अपने लिए !
पवित्रता. पतिव्रता, सतीत्व ,लोकलाज ,मर्यादा
सब मेरे ही आँचल में क्यूूँ
मेरी झोली भर डाली इन शब्दों से
कुछ अपने लिए भी रख लेते
मेरा ये जीवन; कुछ तुम भी तो जी लेते !
शायद- समझ पाते इस वीरानी को
जहां ;दूर से, इक पत्ता भी खड़कता है
तो मानो बहार आ गयी
इक बूँद ओस की गिरती है
तो मानो सागर छलक उठे
पर कोई आवाज़ .कोई आहट नहीं- बरसों बरसों
इंतज़ार में इक कुहुक के
बैठी रही बरसों बरसों
चलो फिर जगहें अपनी बदल लेते हैं
मैं राम- तुम सीता. मैं कृष्ण -तुम राधा
मैं स्वच्छंद -तुम बंधन में—- इक रेख से
मैं सीता नहीं सती नहीं सावित्री नहीं
कोई चाहत लोई ख्वाहिश भी नहीं
कोई राम किसी शिव का भी तो पता दो मुझको
दोहरी मानसिकता में जीते हुए लोग
और सिन्दूर की लक्ष्मणरेखा में कैद मन
कब आज़ाद होंगे हम
कब आज़ाद होंगे मन
ऐसी ही इक रेख और बनाओ न ;अपने लिए !
पवित्रता. पतिव्रता, सतीत्व ,लोकलाज ,मर्यादा
सब मेरे ही आँचल में क्यूूँ
मेरी झोली भर डाली इन शब्दों से
कुछ अपने लिए भी रख लेते
मेरा ये जीवन; कुछ तुम भी तो जी लेते !
शायद- समझ पाते इस वीरानी को
जहां ;दूर से, इक पत्ता भी खड़कता है
तो मानो बहार आ गयी
इक बूँद ओस की गिरती है
तो मानो सागर छलक उठे
पर कोई आवाज़ .कोई आहट नहीं- बरसों बरसों
इंतज़ार में इक कुहुक के
बैठी रही बरसों बरसों
चलो फिर जगहें अपनी बदल लेते हैं
मैं राम- तुम सीता. मैं कृष्ण -तुम राधा
मैं स्वच्छंद -तुम बंधन में—- इक रेख से

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