kavita
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कुछ लिखूं ?लिखूं क्या —?
खोखले शब्दों की इक और तहरीर –?
उन चीखों के लिए –उन आंसुओं के लिए
उस दहशत उस खौफ के लिए -?
उन मासूम आँखों में बुझती रौशनियों के लिए
पर लिखूं क्या ,कहूं क्या –?
क्या है जो कहा नहीं ,बोला नहीं गया
वही बातें वही अफ़सोस वही लानतें मलामतें
थक नहीं जाते सुन सुन के
अब तो मन भी बर्फ हो चला है
कुछ फर्क नहीं पड़ता ;कोई आता है
गोलियां बिखेर जाता है गले काट जाता है
बच्चियों को दिन दहाड़े बाज़ार में बेच जाता है
चाय की चुस्कियों के साथ
हम लील जाते हैं इन ख़बरों को भी
और बंद कर के रख जाते हैं
इक बासी अखबार की तरह
अब तो शब्द भी मुन्ह्जुबानी याद हो गए हैं
बचपन के रटे पहाड़ों की तरह —
–शर्मनाक हौल नाक वगैरह वगैरह
इक लहर भी नहीं उठाती अन्दर
भावनाएं जम सी गयी हैं
तो सोचती हूँ कुछ लिखूं क्या–?
— पर क्या लिखूं और क्यूं ?
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