kavita
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पानी में घुलते दीपों की लौ
जुगनुओं सी टिमटिमाती दीयों की कतारें
लहरों पे बहता फिसलता सा चाँद
और एक दीपदान- मेरा भी
लहरों पे बहते हुए ,हाथ में इक रौश्नीको थामे हुए
दीपक को विसर्जित करते हुए
हर पल, मेरी आँखों में तिरते हुए सपने की तरह
इक हवा के परों पे बैठ कर
उड़ कर मेरे मन गवाक्षो से ये बात आती है
इक उसांस आती है —
चाँद अब भी अधूरा है
चांदनी अब भी खामोश है
कोई भी आँख नम है जब तलक–!
— भीगी हुई आँखों की चिलमन से चाँद दरका हुआ सा दिखता है
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