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क्या हम सचमुच ऐसे ही हैं —?

kavita
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-हम भारतवासी, खुद लाइन लगाकर काम करवाना पसंद नहीं करते. चाहते हैं कि अपना काम बैकडोर से हो जाए और दूसरों को गालियाँ देते हैं कि लोग धक्का-मुक्की करते हैं.

-हम जहाँ-तहाँ सड़क पर चिप्स के खाली रैपर, कोल्डड्रिंक और पानी की खाली बोतलें, कागज़ फेंकते चलते हैं, अपने घर का कूड़ा दरवाजे के बाहर करके निश्चिन्त हो जाते हैं और अपेक्षा करते हैं कि शहर, गलियाँ और सड़कें साफ-सुथरा हों.

-हम खुद अपना काम नियमित प्रक्रिया से होने का इंतज़ार करने के बजाय, “सुविधा-शुल्क” देकर जल्दी काम करवाना चाहते हैं और फिर कहते फिरते हैं कि सरकारी कर्मचारी, क्लर्क, अफसर सब भ्रष्ट हैं.

-हम ट्रैफिक रूल्स खुद फालो नहीं करते, और ट्रैफिक जाम होने पर सरकार और दूसरे नागरिकों को गाली देते फिरते हैं.

-दूसरों के घर की औरतों को घूर-घूरकर देखते हैं, फिकरे कसते हैं, दिल में जाने कैसे-कैसे खयाली पुलाव पकाते हैं और चाहते हैं कि हमारे घर की औरतों के साथ छेड़छाड़ न हो और माहौल अच्छा हो जाए. और दुर्योगवश कोई दुर्घटना हो जाय, तो सरकार को कोसेंगे कि कड़े कानून नहीं हैं, अच्छा प्रशासन नहीं है, पुलिस अपना काम ठीक से नहीं कर रही है…

हम बात-बात पर कहते हैं कि “यार, सब चलता है” और फिर ‘सब ऐसे ही चल रहा है’ इस बात पर कुढ़ते रहते हैं.

हम ऐसे ही लोग, अपने जीवनशैली में कोई बदलाव लाये बिना, अपनी किसी सुविधा को छोड़े बिना, और खुद में कोई सुधार करने से बचते हुए…व्यवस्था में “सुधार” की गुंजाइश तलाशते हैं…हम ये भूल जाते हैं कि व्यवस्था हमने ही बनायी है और अपने अंदर सुधार लाये बिना, अपनी मानसिकता को बदले बिना कुछ नहीं बदल सकता…

(ऊपर लिखी सभी बातें “सबके लिए” नहीं लिखी गयी हैं, इसलिए कोई ये न कहे कि “हम तो ऐसा नहीं करते” लेकिन अगर देश के साठ प्रतिशत लोग भी ऐसा करते हैं, तो सुधार होना मुश्किल है. अब ये भी मत कहियेगा कि समाज में ऐसे लोग तो हमेशा रहेंगे. यदि अस्सी प्रतिशत लोग भी सुधर जायेंगे, तो बाकी बीस प्रतिशत को सुधरना ही पड़ेगा.)——–अनामिका

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