मदर्स डे (11 मई): सारी दुनिया है एक कहानी, तुम इस कहानी का सार हो ‘मां’—माँ
kavita
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लिखना है -माँ के बारे में -लिखूं क्या –?ऐसा क्या है जो कहा नहीं गया -किस भाषा में किस धर्म में किस जाति में –दुनिया के ,ब्रम्हांड के किसी कोने में –कहाँ माँ को पूजा नहीं गया -जहां जीवन है -माँ है –!जो जीवन दायिनी है –वो माँ है -नदी हो, धरती हो ,गाय हो या कुछ भी –धर्म बदलते हैं =भगवान बदल जाते हैं –माँ नहीं बदलती .माँ की इबादतनहीं बदलती -माँ प्रतीक है भावना का ;एक सार्वभौमिक सत्य; ईश्वर के अस्तित्व में ,उसके रूप में- विवाद हो सकते हैं माँ पर नही -इतना तो तय है की दुनिया अगर मातृ सत्तात्मक होती तो यहाँ विवाद शायद कम होते –तभी तो लिखा है मैंने —
चलो आज हम कुछ नया लिखते हैं
और माँ को एक भाव वाचक संज्ञा मान लेते हैं
भावनाओं का ही विस्तार मान लेते हैं
नहीं क्या –ऐतराज़ है तुम्हें ?
देखो न -उसमें ही तो समाया है सभी कुछ
सबकी तो उत्पत्ति है उसी से
कोई भी हो, कैसी भी हो ,कहीं की भी हो
है तो माँ ही ;सर्व व्यापी ईश्वर की तरह ,
विस्तार ही तो है एक भावना का
– प्रेम कहते हैं जिसे
प्रेम का ,ममता का ,ईश्वर का ,
मूर्तिमान रूप हीतो है -माँ
क्यों न हुई फिर- वो ,भाव वाचक संज्ञा -?
ना ना , जीवित प्राणी समझने की भूल न करना उसे,
जो दिखती है वो माँ नहीं ;औरत है-
भूल कर सकती है; हर तरह के माप दण्डों पर –
खरी नहीं भी उतर सकती है;- मगर माँ–?
– वो तो खुद एक माप दंड है ,
एक इमेज है, एक छाया है मात्र-
वो भला गलत हो भी कैसे सकती है?
और छाया तो व्यक्ति नहीं होती –
इमेज तो, मन में होती है;- तो फिर,
बोलो न ,हुई न माँ; भाव वाचक संज्ञा –!
माँ को याद करूँ ,तो किस माँ को -?कितने ही तो चरित्र आँखों में तैर जाते हैं; अलग- अलग; लेकिन समानता सिर्फ एक –मातृत्व :-बच्चो के हित के लिए कुछ भी करने की क्षमता ;जो एकाकार कर देती है इन सभी व्यक्तित्वों को ;अनेकता में एकता शायद यही है; विश्व बंधुत्व की भावना का आधार भी शायद यही —
माँ को याद करो तो यादें हमेशा बचपन में क्यों ले जाती हैं –?काम करती माँ और उसके आगे पीछे पल्लू पकड़ कर घूमते हम ,चौका हो या आँगन ,कभी गाँव का दालान ,कभी शहर की छत ,किसी अनजान, अनचिन्ह शहर , किसी रिश्तेदार के घर शादी ब्याह ,माँ है तो सब है -कोई भय नहीं बचपन को तो माँ से अलग किया ही नहीं जा सकता —
खुले आकाश के नीचे ,चाँद तारों की छाँव में, लेट कर;
माँ की बाहों का तकिया बना कर
कहानी सुनते कि पहाड़े सुनाते थे –
कभी कविताकी जुगलबंदी, कभी स्पेलिंग की आजमाइशें
कभी हिटलर के थे किस्से ,तो कही भूगोल की थी पैमाइशें
कहीं भैय्या की डांटें थीं ,
कहीं थी माँ की प्यारी झिड़कियां
खाने की वो मनुहारें ,खेलने को तो पूरा जग था
आज भी दिल में कसक जाती हैं -यादें बचपन की
जब घूमते ,टहलते- मेरे आँगन में आ जाती है
सोचती हूँ माँ एक है, माँ की भावना भी एक, अपने बच्चों के लिए; फिर बड़े होते ही लोगों के नज़रिये क्यों बदल जाते हैं? बच्चों के कर्तव्य क्यों बाँट दिए जाते हैं? कही ,वही माँ, जिम्मेदारी बन जाती है जिसने कभी बच्चों के लिए सारी जिम्मेदारियों को ,बिना महसूस किये निभाया था. त्याग भी किये थे खुश हो हो कर ,और कही ,उसी माँ के लिए कुछ करने चलो तो लोग सवालिया नज़रों से देखते हैं -और पूछते है-मुझसे
हैरान होती हूँ जब लोग पूछते हैं मुझसे
परेशान हो तुम अपनी– माँ के लिए !
भाई नहीं है क्या /अकेली हो /ससुराल –?
और फिर देखते हैं ऐसी नज़रों से
मानो कोई गुनाह कर दिया हो मैंने
अपनी –माँ के बारे में सोच कर
उसकी परेशानियों के बारे सोच कर
बेटी हूँ उसकी- अधिकार की बात तो सब करते हैं
मगर फ़र्ज़ क्या मेरा कोई बनता नहीं
मुझको भी तो उसने जन्म दिया है अपने अंश से
पाला है अपनी नीदों को खो कर
जो हूँ बनने की प्रेरणा भी है उसी की
फिर क्यों पूछते हैं लोग
परेशान हो क्यों तुम -अपनी –माँ -के लिए
चाहती हूँ की हर पल को संजो लूं अपनी यादों में
हर पल उसके साथ का ,बटोर लूं अपने आँचल में
साथ उसके रह सकूं जीवन की इस बेला में
सांझ ढलने को है रात आने को है –
मैं तो और कुछ नहीं ,उसका साया हूँ -सिर्फ
छोड़ कैसे दूं उसे -इस शाम को. इस रात में
ज़िम्मेदारियाँ हैं बहुत .चाहतें हैं बहुत
बंदिशें हैं बहुत -उलझने हैं बहुत
इनसे जूझने का हौसला भी तो दिया है उसने
आज भी मेरा बचपन जिन्दा है क्यूँ की तू है
आज भी मैं जिद कर सकती हूँ –
——————————– क्यूँ की तू है
तेरा साया हर पल मेरे साथ रहेगा- माँ
तेरे जाने के बाद भी –
पर मैं तो बड़ी हो जाऊंगी
डरती हूँ मैं घबरा रही हूँ मैं -अंधेरों से
छुपना चाहती हूँ मैं तेरे आँचल में
परेशान हूँ मैं अपने लिए
और लोग पूछते हैं की क्यूँ –
परेशान हो तुम –अपनी माँ के लिए–
ऐसा क्यों आखिर –?
लिखना है -माँ के बारे में -लिखूं क्या –?ऐसा क्या है जो कहा नहीं गया -किस भाषा में किस धर्म में किस जाति में –दुनिया के ,ब्रम्हांड के किसी कोने में –कहाँ माँ को पूजा नहीं गया -जहां जीवन है -माँ है –!जो जीवन दायिनी है –वो माँ है -नदी हो, धरती हो ,गाय हो या कुछ भी –धर्म बदलते हैं =भगवान बदल जाते हैं –माँ नहीं बदलती .माँ की इबादतनहीं बदलती -माँ प्रतीक है भावना का ;एक सार्वभौमिक सत्य; ईश्वर के अस्तित्व में ,उसके रूप में- विवाद हो सकते हैं माँ पर नही -इतना तो तय है की दुनिया अगर मातृ सत्तात्मक होती तो यहाँ विवाद शायद कम होते –तभी तो लिखा है मैंने —
चलो आज हम कुछ नया लिखते हैं
और माँ को एक भाव वाचक संज्ञा मान लेते हैं
भावनाओं का ही विस्तार मान लेते हैं
नहीं क्या –ऐतराज़ है तुम्हें ?
देखो न -उसमें ही तो समाया है सभी कुछ
सबकी तो उत्पत्ति है उसी से
कोई भी हो, कैसी भी हो ,कहीं की भी हो
है तो माँ ही ;सर्व व्यापी ईश्वर की तरह ,
विस्तार ही तो है एक भावना का
– प्रेम कहते हैं जिसे
प्रेम का ,ममता का ,ईश्वर का ,
मूर्तिमान रूप हीतो है -माँ
क्यों न हुई फिर- वो ,भाव वाचक संज्ञा -?
ना ना , जीवित प्राणी समझने की भूल न करना उसे,
जो दिखती है वो माँ नहीं ;औरत है-
भूल कर सकती है; हर तरह के माप दण्डों पर –
खरी नहीं भी उतर सकती है;- मगर माँ–?
– वो तो खुद एक माप दंड है ,
एक इमेज है, एक छाया है मात्र-
वो भला गलत हो भी कैसे सकती है?
और छाया तो व्यक्ति नहीं होती –
इमेज तो, मन में होती है;- तो फिर,
बोलो न ,हुई न माँ; भाव वाचक संज्ञा –!
माँ को याद करूँ ,तो किस माँ को -?कितने ही तो चरित्र आँखों में तैर जाते हैं; अलग- अलग; लेकिन समानता सिर्फ एक –मातृत्व :-बच्चो के हित के लिए कुछ भी करने की क्षमता ;जो एकाकार कर देती है इन सभी व्यक्तित्वों को ;अनेकता में एकता शायद यही है; विश्व बंधुत्व की भावना का आधार भी शायद यही —
माँ को याद करो तो यादें हमेशा बचपन में क्यों ले जाती हैं –?काम करती माँ और उसके आगे पीछे पल्लू पकड़ कर घूमते हम ,चौका हो या आँगन ,कभी गाँव का दालान ,कभी शहर की छत ,किसी अनजान, अनचिन्ह शहर , किसी रिश्तेदार के घर शादी ब्याह ,माँ है तो सब है -कोई भय नहीं बचपन को तो माँ से अलग किया ही नहीं जा सकता —
खुले आकाश के नीचे ,चाँद तारों की छाँव में, लेट कर;
माँ की बाहों का तकिया बना कर
कहानी सुनते कि पहाड़े सुनाते थे –
कभी कविताकी जुगलबंदी, कभी स्पेलिंग की आजमाइशें
कभी हिटलर के थे किस्से ,तो कही भूगोल की थी पैमाइशें
कहीं भैय्या की डांटें थीं ,
कहीं थी माँ की प्यारी झिड़कियां
खाने की वो मनुहारें ,खेलने को तो पूरा जग था
आज भी दिल में कसक जाती हैं -यादें बचपन की
जब घूमते ,टहलते- मेरे आँगन में आ जाती है
सोचती हूँ माँ एक है, माँ की भावना भी एक, अपने बच्चों के लिए; फिर बड़े होते ही लोगों के नज़रिये क्यों बदल जाते हैं? बच्चों के कर्तव्य क्यों बाँट दिए जाते हैं? कही ,वही माँ, जिम्मेदारी बन जाती है जिसने कभी बच्चों के लिए सारी जिम्मेदारियों को ,बिना महसूस किये निभाया था. त्याग भी किये थे खुश हो हो कर ,और कही ,उसी माँ के लिए कुछ करने चलो तो लोग सवालिया नज़रों से देखते हैं -और पूछते है-मुझसे
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