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इक उम्र ठमक कर थम गई —

kavita
kavita
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इक ऊम्र ठमक के थम गयी ,ज़िंदगी यूँ ही आगे बढ़ गयी
बेवज़ह सी उलझनो में घिर के हम, बचपन को अपने खो बैठे
आज भी आवाज़ वो जो देता है, छुप के यादों के गलियारों से
जब भी सफा माजी का कोई उलटता है ,बिछड़ा हुआ सा कोई मिल जाता है
झांकता हैफिर से मन के आँगन में ,छुप के छलिया सा बचपन हमारा
याद उन बीते दिनों की दिलाता है  जब बारिशें भी खेलने का सामान होती थी
इक ऊम्र ठमक के थम गयी ,
ज़िंदगी यूँ ही आगे बढ़ गयी
बेवज़ह सी उलझनो में घिर के हम,
बचपन को अपने खो बैठे
आज भी आवाज़ वो जो देता है,
छुप के यादों के गलियारों से
जब भी सफा माजी का कोई उलटता है ,
बिछड़ा हुआ सा कोई मिल जाता है
झांकता हैफिर से मन के आँगन में ,
छुप के छलिया सा बचपन हमारा
याद उन बीते दिनों की दिलाता है
जब बारिशें भी खेलने का सामान होती थी

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