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गई थी आज मैं फिर वहाँ —

kavita
kavita
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जाती हूँ मैं अक्सर घूमते टहलते
मिलने कुछ पेड़ों से ,फूलों से, चिड़ियोंसे, झरनों से
बाहें फैलाके मिलते हैं ये
बातें  करते हैं मुझसे,इंतज़ार करते हैं मेरा-
कल ही की तो बात है;
देखा एक मीत  मेरा खड़ा था बड़ी शानसे
पतझर के बाद
पनप रही थीं ढेरों कोंपलें
कुछ ललछौंह  सी थी पत्तियों  की रंगत
मानो नव यौवन की हो आहट
सलज्ज मगर तेज वान
झूमती पत्तियों  ने  पुकारा मुझे
हिलती डालियों ने मानो
बाहों में भरने को आवाज़ दी
देखती रह गई मैं, निरखती रह गई मैं
उस नवयौवन की आहट लिए सुंदरता को
फिर- जल्दी में हूँ-कल मिलेंगे
कह निकल  गई:- आज गई :-मैं  फिर वहाँ
मिलने कुछ ठहर के बात करने ;मगर ये क्या–?
झुलस गई थीं सारी कोंपलें —
किसी दरिंदे ने ,उसके ही किसी अपने ने
पतझर की सारी सूखीपत्तियों को
अपनी ही तमाम फ्रस्ट्रेशनों को
गिर्द समेट के उसके,  लगा दी थी आग ;
घेर दी थी अग्नि रेख सी,  चारों ओर
झुलस रही थीं कोंपलें, नए सपने ,आकांक्षाएँ
जाये कहाँ, अपनी ज़मीन ,आसमान;छोड़ के
जलना ही नियति थी ,जल गई ,झुलस गई
अपने सपनों के साथ;
—– गई थी मैं आज फिर; उसके पास
गले मिल के आई हूँ;
गुमसुम उस बगिया से ,झुलसी हुईपत्तियों से, शाखाओं से ,
गले लग समझा भी आई हूँ
दो बूंद अश्रुजल ;टपका भी आई हूँ जड़ों में उसकी
शायद  यही बन जाएँ अमृत;
मेरी सांसें बन जाएँ उसकी प्राण वायु
मेरा आलिंगन दे  दे पुनर जीवन
उन जली हुई कोमल भावनाओं को
और जगा दे रोशनी की एक नई किरण
सिर्फ इतना ही तो कर सकती हूँ मैं —तेरे लिए
जाती हूँ मैं अक्सर घूमते टहलते
मिलने कुछ पेड़ों से ,फूलों से, चिड़ियोंसे, झरनों से
बाहें फैलाके मिलते हैं ये
बातें  करते हैं मुझसे,इंतज़ार करते हैं मेरा-
कल ही की तो बात है;
देखा एक मीत  मेरा खड़ा था बड़ी शानसे
पतझर के बाद
पनप रही थीं ढेरों कोंपलें
कुछ ललछौंह  सी थी पत्तियों  की रंगत
मानो नव यौवन की हो आहट
सलज्ज मगर तेज वान
झूमती पत्तियों  ने  पुकारा मुझे
हिलती डालियों ने मानो
बाहों में भरने को आवाज़ दी
देखती रह गई मैं, निरखती रह गई मैं
उस नवयौवन की आहट लिए सुंदरता को
फिर- जल्दी में हूँ-कल मिलेंगे
कह निकल  गई:- आज गई :-मैं  फिर वहाँ
मिलने कुछ ठहर के बात करने ;मगर ये क्या–?
झुलस गई थीं सारी कोंपलें —
किसी दरिंदे ने ,उसके ही किसी अपने ने
पतझर की सारी सूखीपत्तियों को
अपनी ही तमाम फ्रस्ट्रेशनों को
गिर्द समेट के उसके,  लगा दी थी आग ;
घेर दी थी अग्नि रेख सी,  चारों ओर
झुलस रही थीं कोंपलें, नए सपने ,आकांक्षाएँ
जाये कहाँ, अपनी ज़मीन ,आसमान;छोड़ के
जलना ही नियति थी ,जल गई ,झुलस गई
अपने सपनों के साथ;
—– गई थी मैं आज फिर; उसके पास
गले मिल के आई हूँ;
गुमसुम उस बगिया से ,झुलसी हुईपत्तियों से, शाखाओं से ,
गले लग समझा भी आई हूँ
दो बूंद अश्रुजल ;टपका भी आई हूँ जड़ों में उसकी
शायद  यही बन जाएँ अमृत;
मेरी सांसें बन जाएँ उसकी प्राण वायु
मेरा आलिंगन दे  दे पुनर जीवन
उन जली हुई कोमल भावनाओं को
और जगा दे रोशनी की एक नई किरण
————सिर्फ इतना ही तो कर सकती हूँ मैं
—————————————–तेरे लिए

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