वास्तव में महिला जानभूझकर कमजोर ही रहना चाहती है जिससे सरे काम पुरुषो को ही करने पड़े..नारी केवल अपने बारे में ही सोचती है जब वो दुसरो के बारे में भी सोचने लगेगी तभी वो तरक्की कर पाएगी… पुरुष जो कि महिलाओ से कई गुना ज्यादा काम करते है और कोई भी विपत्ति आने पर वो ही आगे रहते है फिर भी बेशर्म औरते अपना ही गुडगान करती है..देश के लिए जान भी सबसे ज्यादा पुरुष ही देते है..रिक्शॉ टेम्पो बस सब वे ही चलाते है और औरतो के लिए कोई भरी काम नही बताते..आप ये बताइये क्या पुरुष रिक्शॉ चलाकर या मजदूरी करके कमाते है तो क्या ये उल्टा औरतो पर ही अत्याचार है? जब सेना में पुरुष मरते है तब आपलोग क्यों नहीं कहती कि वो वो सहीद होने में हमसे आगे है हमें भी सहीद होना चाहिए
उपर्युक्त प्रतिक्रिया मेरी निम्नलिखित कविता पर अपने किसी जले भुने भाई बंधु के द्वारा प्रेषित की गई है—
आज की नारी
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मैं हूँ तुम्हारे घर में ,तुम्हारे रहमो करम पे
जो तुम नही तो इसमे मेरा वजूद क्या है –?
घर है तुम्हारा इसमे -सब जानते है तुमको
मैं मिट भी जाऊ इसमे तब भी किसे पता है?
क्यों बनी रहूँ हमेशा मैं नीव का ही पत्थर
कि ना हो तुम तो मेरा -ही आशियाना धसक जाये
नही बनना है मुझे चाँद/चाँदनी —-कि ;
शीतलता के गीत जिसके सभी गायें
पर दिन की चकाचौंध में,
सब उसको भूल जाएँ
चढ़ना है मुझे आकाश में
और तपना है सूरज की तरह
कि चाह कर भी कोई —-;
मुझको न भूल पाये।
इस तपिश को मेरी गले लगा सको तो —चलो
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साथ बन के तुम -मेरे हम सफर–!
हालांकि इसका जवाब मैं नही भी दे सकती थी या फिर इस कमेन्ट को एप्रूव न करती मगर मुझे लगा कि ये एक सोच है जो उत्तर मांग रही है तो सार्वजनिक मंच पर क्यों नही ?वैसे मेरी कविता का इस से कोई संबंध मुझे नही दिखता क्योंकि मेरी कविता के केन्द्र्में आज की नारी है जो अपने कर्तव्यों से विमुख नही है मगर पंगु बन कर सिर्फ पुरुष के सहारे नही रहना चाहती विवाह उसके लिए उसके व्यक्तित्व का निखार है अंत नही -कहीं और लिखा भी है मैंने” खुद मुख्तार हूँ मैं अपना जहां चुन सकती हूं रहनुमा नही इक साथी का इंतज़ार है मुझको”–
अगर सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो सदियों से हमारी औरतों की पूरी ज़िंदगी सिर्फ एक पुरुष के इर्द गिर्द घूमती रही है सिर्फ रिश्तों के नाम बदलते रहे हैं जैसे कि डोर से जुड़ी पतंग और जब वही डोर कट जाती है कभी ,तो वहीं होता है उसका सामाजिक अधोपतन -जिस घर के लिए वो सर्वस्व छोड़ देती है खुद को मिटा कर जिस घर को अपना बनाने का प्रयास करती है, अपने खून के रिश्तों को छोड़ कर समाज के दिये रिश्तों को स्वीकारती है ,मान देती है ,उस घर में वो है कहाँ? उसका पूरा अस्तित्व सिर्फ एक व्यक्ति के वजूद, उसकी इक्षा और अनिक्षा पर टिका है –क्यों ?वो पुरुष उसे सम्मान दे तो वो समाज में सम्मानित है अन्यथा नही –क्यों है ऐसा –और इस सम्मान को खोने के डर से वो स्वयं पर होने वाले सारे अत्याचारों को भी मुस्कुरा कर बिना किसी प्रतिरोध के सहती रहे ऐसी ही अपेक्षा रक्खी जाती है उस से ।
गहराई से सोचें तो पाइएगा कि वो हर अप्राकृतिक काम जो पुरुष नही कर सकता उसने स्त्री के हवाले कर दिये हैं –अपने खून के रिश्तोंका जुड़ाव सहज स्वाभाविक है कि नही मगर उनको छोड़ कर जाना स्त्री की नियति है ,अपने स्वाभाविक रिश्तों को कम और सामाजिक रिश्तों को अधिक महत्व देना स्त्री की मजबूरी ;इसे हल्का न समझिएगा जनाब; अपनी मरती हुई माँ को देखने न जा पाकर ससुराल के विवाहोत्सव को सम्हालने का दायित्व किसी पुरुष को देने के लिए आप सोच भी सकते हैं ?नही न –मगर यही अस्वाभाविक व्यवहार स्त्री के उपर कर्तव्य के नाम पर डाल दिया जाता है । इसका पालन करती आई हैं स्त्रियाँ युगों से- क्या लगता है कितना आत्मबल चाहिए इसके लिए- और हमारे भाई कहते हैं कि औरतें काम करना नही चाहती और सिर्फ अपने बारे में सोचती हैं पहली जो बात कहनी है मुझे इस संदर्भ में कि शायद ये बंधु इस युग में नही रहते क्योंकि इन का विचार है कि सीमा पर सिर्फ पुरुष जाते हैं अब ये क्या आपको बताना पड़ेगा कि अब भारत में भी स्त्रियाँ फौज में, पुलिस में जा रही हैं और अगर इतिहास उठा कर देखें तो आप अनगिनत दृष्टांत पा जाएँगे ऐसे ,जहां देश के लिए कुर्बानी में औरतें पीछे नही रही हैं। वैसे जो पुरुष सीमा पर हैं या कहीं भी है, कोई भी कार्य कर रहे हैं ,आज तक वो बाहर अगर निश्चिंत हो कर अपना कर्तव्य निबाह रहे हैं तो किस के ऊपर आधारित हो कर- कभी सोचा महोदय–? मगर आप तो इसका जरा भी श्रेय स्त्री को देने को तैयार ही नही !आप सीमा पर लड़ते हैं पराक्रम दिखाते हैं, तमगा पाते हैं; वीरगति को प्राप्त हुए तो शहीद कहलाते हैं, नाम होता है आपका और जो आपकी अनुपस्थिति में आपके परिवार को चलाती है उसकी धुरी बन कर, आपके न होने की स्थिति में सारी समस्याओं को झेलती है -छोड़ कर भागती नही मैदान और न ही आपके आँख मूँदते ही बच्चों को भाग्य भरोसे छोड़ कर दूसरे का हाथ थाम कर चल देती है जैसा की एकाध बिरलों को छोड़ कर अधिकतर पुरुष करते हैं- कभी अपनी दैहिक जरूरतों, तो कभी सामाजिक दायित्वों की आड़ ले कर –इस वीरता के लिए क्या सम्मान देते हैं आप उसे ?शारीरिक रूप से स्त्री पुरुष की तुलना में कमजोर है ये एक सार्वभौमिक सत्य है और इसकी कमी सृष्टि ने उसे अतुलनीय मानसिक बल दे कर की है तो इसी वजह से ,पुरुष के लिए भारी काम निर्धारित किए गए और स्त्री के लिए मानसिक; और शारीरिक तौर से कम श्रम वाले काम और ऐसा भी नही कि औरतें शारीरिक श्रम के काम कर नही सकती या करती नही आँखें खोल कर देखें आपके अगल बगल ही बहुत उदाहरण मिल जाएँगे । पिता के न रहने पर माँ पिता बन कर घर भी चलाती है और माँ तो वो है ही ;मगर माता के न रहने पर माँ बनते कितने पुरुषों को देखा है आपने ;उल्टे वो तो पिता भी नही रह जाता ठीक से –यहाँ स्त्री और पुरुष की कोई जंग नही चल रही क्यों कि दोनों को एक दूसरे से अलग किया ही नही जा सकता, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । मगर अब आज नारी सिर्फ नींव का पत्थर बनने को तैयार नही और इसके लिए धन्यवाद करना चाहूंगी आप जैसी ही मानसिकता वाले भाई बंधुओं को जो हमेशा उसे उसकी शारीरिक कमजोरियों पर आँकते रहे और अपनी मर्दानगी का ढिंढोरा पीटते रहे बिना ये जाने की आपके पीछे जो संबल है ,जो एक मानसिक आधार है वो महज एक स्त्री ही है —और नही बस और नही अब ये न होने दूँगी ,जो कुछ भी मैने झेला है तुझको न सहने दूँगी –(विवाहित पुत्री की व्यथा )
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