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माँ एक भाव वाचक संज्ञा—?

kavita
kavita
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चलो आज हम कुछ नया लिखते हैं
और माँ को एक भाव वाचक संज्ञा मान लेते हैं
भावनाओं का ही विस्तार मान लेते हैं
नहीं क्या –ऐतराज़ है तुम्हें ?
देखो न -उसमें ही तो समाया है सभी कुछ
सबकी तो उत्पत्ति है उसी से
कोई भी हो, कैसी भी हो ,कहीं की  भी हो
है तो माँ ही ;सर्व व्यापी ईश्वर की तरह  ,
विस्तार ही तो है एक भावना का
— प्रेम कहते हैं जिसे
प्रेम का ,ममता का ,ईश्वर का ,
मूर्तिमान रूप हीतो है -माँ
क्यों न हुई फिर- वो ,भाव वाचक संज्ञा -?
ना ना  , जीवित प्राणी समझने की भूल न करना उसे,
जो दिखती है वो माँ नहीं ;औरत है-
भूल कर सकती है; हर तरह के माप दण्डों पर –
खरी नहीं भी उतर सकती है;- मगर माँ–?
— वो तो खुद एक माप दंड है ,
एक इमेज है, एक छाया है मात्र-
वो भला गलत हो भी कैसे सकती है?
और छाया तो व्यक्ति नहीं होती –
इमेज तो, मन  में होती  है;- तो फिर,
बोलो न ,हुई न माँ; भाव वाचक संज्ञा –!
चलो आज हम कुछ नया लिखते हैं
और माँ को एक भाव वाचक संज्ञा मान लेते हैं
भावनाओं का ही विस्तार मान लेते हैं
नहीं क्या –ऐतराज़ है तुम्हें ?
देखो न -उसमें ही तो समाया है सभी कुछ
सबकी तो उत्पत्ति है उसी से
कोई भी हो, कैसी भी हो ,कहीं की  भी हो
है तो माँ ही ;सर्व व्यापी ईश्वर की तरह  ,
विस्तार ही तो है एक भावना का
— प्रेम कहते हैं जिसे
प्रेम का ,ममता का ,ईश्वर का ,
मूर्तिमान रूप हीतो है -माँ
क्यों न हुई फिर- वो ,भाव वाचक संज्ञा -?
ना ना  , जीवित प्राणी समझने की भूल न करना उसे,
जो दिखती है वो माँ नहीं ;औरत है-
भूल कर सकती है; हर तरह के माप दण्डों पर –
खरी नहीं भी उतर सकती है;- मगर माँ–?
— वो तो खुद एक माप दंड है ,
एक इमेज है, एक छाया है मात्र-
वो भला गलत हो भी कैसे सकती है?
और छाया तो व्यक्ति नहीं होती –
इमेज तो, मन  में होती  है;- तो फिर,
बोलो न ,हुई न माँ; भाव वाचक संज्ञा –!

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