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इक चाँद अकेला —

kavita
kavita
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इक चाँद अकेला  आँगन में जब अपनी छत से दिखता है
खामोश नज़र मेरी हर पल उसका ही पीछा करती हैं
कहीं क्या पता तूने भी गलती ही से सही ;
इक छाया के भ्रम में, हलकी सी  नज़र उठा कर
शायद -शायद उसको देखा हो —
हर सांस मेरी जब आती है क्या तुझको छूकर आयी है-
ये प्रश्न उमड़ता है मन में ,इसका जवाब अब मांगे कौन –
इसका जवाब अब देगा कौन ; मैं हूँ मेरी तन्हाई है
और चाँद अकेला आँगन में; है मेरी छत पर लटका हुआ
इक चाँद अकेला  आँगन में जब अपनी छत से दिखता है
खामोश नज़र मेरी हर पल उसका ही पीछा करती हैं
कहीं क्या पता तूने भी गलती ही से सही ;
इक छाया के भ्रम में, हलकी सी  नज़र उठा कर
शायद -शायद उसको देखा हो —
हर सांस मेरी जब आती है क्या तुझको छूकर आयी है-
ये प्रश्न उमड़ता है मन में ,इसका जवाब अब मांगे कौन –
इसका जवाब अब देगा कौन ; मैं हूँ मेरी तन्हाई है
और चाँद अकेला आँगन में; है मेरी छत पर लटका हुआ

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