सशक्त नारी को नमन –आज का विषय -पढ़ा तो सोच में पड़ गई इसलिए नही कि क्या लिखूँ ;अपितु किस पे लिखूँ क्योंकि नारी तो कभी अशक्त लगी ही नही मुझे ,सिवाय तब जब वो अपने नारीत्व का खुला प्रदर्शन करने लगे, अपने अभिजात्य का दंभ भरने लगे ,वरना हर नारी चाहे कामकाजी हो अन्यथा गृहिणी ,अपना पूरा संसार ,अपने परिजन, नातेदार- इन सबका बोझ अपने कंधो पर उठा कर चलती है, अनवरत; वो अशक्त कैसे हो सकती है? हाँ ,उसे ये भान कराया जाता है कि तुम कमजोर हो . हर व्यक्ति अपनी अपनी परिस्थियों से जूझता है -पुरुष /स्त्री /अमीर /गरीब –सभी अपने सामर्थ्य के अनुसार -लड़ना सबको है, महिलाएं भी यही करती हैं ,पुरुष भी . कोई सम्झौता करता है ,कोई लड़ता है मगर समय पर झुक के आंधी के प्रवाह को निकाल जाने देना बुद्धिमत्ता है कमजोरी नही खास तौर पर तब, जब आपके साथ एक आप ही नही ,कई ज़िंदगियाँ जुड़ी हों और यही करती हैं हमारी महिलाएं ,इसे आप कमजोरी कैसे कह सकते हैं –हाँ कुछ स्थान हैं जहां उसे प्रकृति ने ही कमजोर कर दिया है शारीरिक बल में- तो क्या हुआ -आज के समय में क्या शारीरिक बल का जरा भी महत्व है ?दुर्घटनाएँ ,छीना झपटी ,खून खराबा कहाँ नही होता किसके साथ नही होता -?क्या पुरुष वर्ग अछूता है जिसके पास जो है देने को ,कभी भी ,कहीं भी लूटा जा सकता है -स्त्री के पास अस्मत है ,इज्ज़त है, शारीरिक शुचिता है- वो भी लूटी जा सकती है ;वैसे ही ,जैसे आदमी के पास से धन- मगर क्या धन लूटे जाने पर कोई जान दे आपने सुना है ?मगर शारीरिक शुचिता को स्त्रियॉं के लिए हमने एक हौव्वा सा बना के क्यों रखा है मुझे समझ नही आता -क्यों किसी भी बलात्कार के बाद हम नारी की कमजोरी के बखान में लग जाते हैं और अब तो कम है फिर भी ,वरना हमारे धर्म -कोई भी हों -ऐसी घटनाओं के बाद दोषी को सजा चाहे न दें ये जरूर चाहते थे /हैं की औरत अपने जीने का अधिकार खुद त्याग दे –शारीरिक शुचिता के नाम पर आज तक जितनी महिलाओं के कत्ल हुए हैं उतने तो शायद और किसी भी कारण से न हुए होंगे. जरूरत है ये पाठ पढ़ने और पढ़ाने की ,नए सिरे से; अस्मिता की परिभाषा लिखने की ;शरीर और चरित्र अलग अलग हैं चरित्र की शुद्धि आवश्यक है शरीर पर अगर अत्याचार होता भी है तो वो क्यों डरे जिस पर अत्याचार हुआ है खुल कर सामने क्यों न आए- लेकिन नही आते लोग ;क्यों -?कभी सोचा है –हमारी इसी सोच के कारण-! ये सोच बदलनी होगी ,बदलनी ही होगी -!
लीजिये मैं तो बैठी थी आपको बताने, उस महिला के विषय में, जिस से मैं इतनी प्रभावित हूँ और बह गई फिर -बस ऐसी ही हूँ मैं ,भावनाओं में बहजाने वाली और क्यों न हो ऊँ – औरत हूँ न , ऐसी ही होती हैं सभी शाय़द ,थोड़े बहुत अंतर के साथ –उनमें से कुछ ही ऐसी होती हैं जो अपनी भावनाओं के साथ साथ अपने सामाजिक दायित्वों का भी खयाल रखती हैं । जहां जरूरत हो वहाँ परिवार का विरोध झेल कर भी -। मेरी प्रेरणा स्त्रोत हैं मेरे दादी मा– अब तो उन्हें गए भी जमाने बीत गए पर आज भी वो वैसी ही हैं ,मेरे यादों में । अब नए नज़रिये से देखती हूँ तो समझ पाती हूँ कितनी आगे थीं वो अपने जमाने से –सान 1900 के आसपास उनकी पैदाइश रही होगी ,अपने समय में में संस्कृत मध्यमा थी वो ,देहरादून छात्रावास में रह कर पढ़ी थी। बेहद दृढ़ चरित्र की महिला थीं ,कर्मठ और शारीरिक श्रम में अपने साथ साथ अपने परिवार को लगाए रहने वाली, अन्न का एक दाना भी बर्बाद न हो ये ध्यान रखने वाली, चरखा चलाती रवीन्द्र संगीत का भी ज्ञान था उन्हें ,सामूहिकपरिवार था बड़ी बहू थी सबकी ज़िम्मेदारी साथ ले कर चलना था। अपने पति यानी की मेरे बाबा को वकालत की प्रैक्टिस नही करने दी कि उसमें झूठ बोलना पड़ता है ,चारित्रिक बल इतना कि पुत्र को पढ़ाने केलिए दस्वी कक्षा की गणित और साइंस पढ़ी ,50 साल की उम्र में ;तेज इतना की घर का प्रत्येक व्यक्ति सम्मान करता था. किसी गलत बात पर सम्झौता उनके स्वभाव का अंग था ही नही ;चाहे उसके लिए अपनों का विरोध क्यों न करना पड़े –एक घटना बताऊ; अपने पिता जी से सुनी है मैंने –गाँव में एकबहुत पुराने पट्टेदार थे, बहुत गरीब एक वृद्ध महिला थी ,कुछ मांग के लाती तो घर पे खाने पीने का काम चलता था, कुछ जमीन थी जो रेहन पर थी- मतलब ,गिरवी थी जो पैसा न दिये जाने के एवज़ में ज़ब्त हो जाने वाली थी. जब उस महिला की पौत्री का विवाह तय हुआ, निर्धनावस्था के कारण एक दुहेजू के साथ तो पूरी पट्टेदारी ; जिसमें हमारे परिवार के करता धर्ता भी शामिल थे; विरोध में उतर आई कि इज्ज़त का प्रश्न है- ऐसी शादी अगर हुई तो कोई उसमें शामिल नही होगा, और उस समय ये कोई मामूली बात नही थी –मृत्युदंड एक बार को ठीक था पर सामाजिक बहिष्कार –बहर हाल ;हमारी शांत, सरल दादी मा उस समय प्रखर सूर्य बन बैठीं और घर के पुरुष वर्ग को आड़े हाथों लेते हुए उन्होने कहा कि जिस अवस्था में ये परिवार है उसमें अगर आप कोई मदद नही कर सकते तो रोड़े न अटकाओ या तो उस लड़की का विवाह सब लोग अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर कराएं अन्यथा अपनी सामरथ्य के अनुसार उसे करने दें –उन्होने कहा कि अगर तब भी आप लोग इस बहिष्कार का निर्णय करते हैं तो मैं भी बहिषकृत होने को तैयार हूँ क्योंकि मैं वहाँ जाके खाना बनाऊँगी भी और खाऊँगी भी –कल्पना कर सकते हैं आप उस समय की और उस ज्योतिपुंज की; मैं अगर आज खुद को सामयिक परिस्थितियों में रख कल्पना करूँ तो इतना साहस खुद में नही पाती -अंत में जीत उनकी हुई और विवाह सम्पन्न हुआ शांति पूर्वक. प्रकृति प्रेम बेहद था- जहा रहती आसपास पेड़ पौधे लगा लेती या ढूंढ लेती ,उनके संसर्ग में रहने के लिए बेटे के घर गईं एक बार तो मकान मालिक द्वारा उनके बगीचे को कटवाने को ले कर धरने पर बैठ गई वो नींव खुदवाते ये पाट देतीं अंत में बड़े पिताजी की अनुरोध करने पर किसी तरह बात बनी. गांधी जी की पूरी तरह समर्थक थीं -अहिंसा और सत्याग्रह उनके हथियार . एक बार कहीं गई थी, ठीक से याद नही कि कहाँ -पीछे कुछ बस्ती थी जहां सूअर पाले जाते थे और खाये भी और शायद उनके बाल नोच कर ,उनका कुछ व्यापार भी होता था . ऐसा होने में सूअर बेहद चिल्लाते थे आवाज़, हमारी नायिका अर्थात हमारी दादी माँ तक भी पहुंची ,फिर क्या था ये दुख उनसे देखा नही गया, हमारे दादा जी तब डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मेम्बर हुआ करते थे उन्हें कहा गया कि इसे बंद कराएं जो कि उनके कार्य क्षेत्र के बाहर की बात थी फिर बाद में कुछ कह सुन कर इसका निवारण हुआ . आप चाहें तो इसे कुछ भी समझ सकते हैं पर मेरी समझ से ये उनके सशक्त व्यक्तित्व का ही पर्याय है . जो सही समझा, उसके पक्ष में खड़ी हुई -पूरी दृढ़ता से -निर्भय, कर्मठ ,जागरूक और दृढ़ प्रतिज्ञ ;जो किया- असहयोग को हथियार बनाया, हमेशा न्याय के पक्ष में खड़ी हुई, मनुष्य हो ,पशु हो या प्रकृति -जरूरत पड़ी तो अपनों का विरोध किया ,खुद श्रम किया और अपनों से कराया भी ;सशक्त नारीत्व /मनुजयतव का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगाभला —
सशक्त नारी को नमन –आज का विषय -पढ़ा तो सोच में पड़ गई इसलिए नही कि क्या लिखूँ ;अपितु किस पे लिखूँ क्योंकि नारी तो कभी अशक्त लगी ही नही मुझे ,सिवाय तब जब वो अपने नारीत्व का खुला प्रदर्शन करने लगे, अपने अभिजात्य का दंभ भरने लगे ,वरना हर नारी चाहे कामकाजी हो अन्यथा गृहिणी ,अपना पूरा संसार ,अपने परिजन, नातेदार- इन सबका बोझ अपने कंधो पर उठा कर चलती है, अनवरत; वो अशक्त कैसे हो सकती है? हाँ ,उसे ये भान कराया जाता है कि तुम कमजोर हो . हर व्यक्ति अपनी अपनी परिस्थियों से जूझता है -पुरुष /स्त्री /अमीर /गरीब –सभी अपने सामर्थ्य के अनुसार -लड़ना सबको है, महिलाएं भी यही करती हैं ,पुरुष भी . कोई सम्झौता करता है ,कोई लड़ता है मगर समय पर झुक के आंधी के प्रवाह को निकाल जाने देना बुद्धिमत्ता है कमजोरी नही खास तौर पर तब, जब आपके साथ एक आप ही नही ,कई ज़िंदगियाँ जुड़ी हों और यही करती हैं हमारी महिलाएं ,इसे आप कमजोरी कैसे कह सकते हैं –हाँ कुछ स्थान हैं जहां उसे प्रकृति ने ही कमजोर कर दिया है शारीरिक बल में- तो क्या हुआ -आज के समय में क्या शारीरिक बल का जरा भी महत्व है ?दुर्घटनाएँ ,छीना झपटी ,खून खराबा कहाँ नही होता किसके साथ नही होता -?क्या पुरुष वर्ग अछूता है जिसके पास जो है देने को ,कभी भी ,कहीं भी लूटा जा सकता है -स्त्री के पास अस्मत है ,इज्ज़त है, शारीरिक शुचिता है- वो भी लूटी जा सकती है ;वैसे ही ,जैसे आदमी के पास से धन- मगर क्या धन लूटे जाने पर कोई जान दे आपने सुना है ?मगर शारीरिक शुचिता को स्त्रियॉं के लिए हमने एक हौव्वा सा बना के क्यों रखा है मुझे समझ नही आता -क्यों किसी भी बलात्कार के बाद हम नारी की कमजोरी के बखान में लग जाते हैं और अब तो कम है फिर भी ,वरना हमारे धर्म -कोई भी हों -ऐसी घटनाओं के बाद दोषी को सजा चाहे न दें ये जरूर चाहते थे /हैं की औरत अपने जीने का अधिकार खुद त्याग दे –शारीरिक शुचिता के नाम पर आज तक जितनी महिलाओं के कत्ल हुए हैं उतने तो शायद और किसी भी कारण से न हुए होंगे. जरूरत है ये पाठ पढ़ने और पढ़ाने की ,नए सिरे से; अस्मिता की परिभाषा लिखने की ;शरीर और चरित्र अलग अलग हैं चरित्र की शुद्धि आवश्यक है शरीर पर अगर अत्याचार होता भी है तो वो क्यों डरे जिस पर अत्याचार हुआ है खुल कर सामने क्यों न आए- लेकिन नही आते लोग ;क्यों -?कभी सोचा है –हमारी इसी सोच के कारण-! ये सोच बदलनी होगी ,बदलनी ही होगी -!
लीजिये मैं तो बैठी थी आपको बताने, उस महिला के विषय में, जिस से मैं इतनी प्रभावित हूँ और बह गई फिर -बस ऐसी ही हूँ मैं ,भावनाओं में बहजाने वाली और क्यों न हो ऊँ – औरत हूँ न , ऐसी ही होती हैं सभी शाय़द ,थोड़े बहुत अंतर के साथ –उनमें से कुछ ही ऐसी होती हैं जो अपनी भावनाओं के साथ साथ अपने सामाजिक दायित्वों का भी खयाल रखती हैं । जहां जरूरत हो वहाँ परिवार का विरोध झेल कर भी -। मेरी प्रेरणा स्त्रोत हैं मेरे दादी मा– अब तो उन्हें गए भी जमाने बीत गए पर आज भी वो वैसी ही हैं ,मेरे यादों में । अब नए नज़रिये से देखती हूँ तो समझ पाती हूँ कितनी आगे थीं वो अपने जमाने से –सान 1900 के आसपास उनकी पैदाइश रही होगी ,अपने समय में में संस्कृत मध्यमा थी वो ,देहरादून छात्रावास में रह कर पढ़ी थी। बेहद दृढ़ चरित्र की महिला थीं ,कर्मठ और शारीरिक श्रम में अपने साथ साथ अपने परिवार को लगाए रहने वाली, अन्न का एक दाना भी बर्बाद न हो ये ध्यान रखने वाली, चरखा चलाती रवीन्द्र संगीत का भी ज्ञान था उन्हें ,सामूहिकपरिवार था बड़ी बहू थी सबकी ज़िम्मेदारी साथ ले कर चलना था। अपने पति यानी की मेरे बाबा को वकालत की प्रैक्टिस नही करने दी कि उसमें झूठ बोलना पड़ता है ,चारित्रिक बल इतना कि पुत्र को पढ़ाने केलिए दस्वी कक्षा की गणित और साइंस पढ़ी ,50 साल की उम्र में ;तेज इतना की घर का प्रत्येक व्यक्ति सम्मान करता था. किसी गलत बात पर सम्झौता उनके स्वभाव का अंग था ही नही ;चाहे उसके लिए अपनों का विरोध क्यों न करना पड़े –एक घटना बताऊ; अपने पिता जी से सुनी है मैंने –गाँव में एकबहुत पुराने पट्टेदार थे, बहुत गरीब एक वृद्ध महिला थी ,कुछ मांग के लाती तो घर पे खाने पीने का काम चलता था, कुछ जमीन थी जो रेहन पर थी- मतलब ,गिरवी थी जो पैसा न दिये जाने के एवज़ में ज़ब्त हो जाने वाली थी. जब उस महिला की पौत्री का विवाह तय हुआ, निर्धनावस्था के कारण एक दुहेजू के साथ तो पूरी पट्टेदारी ; जिसमें हमारे परिवार के करता धर्ता भी शामिल थे; विरोध में उतर आई कि इज्ज़त का प्रश्न है- ऐसी शादी अगर हुई तो कोई उसमें शामिल नही होगा, और उस समय ये कोई मामूली बात नही थी –मृत्युदंड एक बार को ठीक था पर सामाजिक बहिष्कार –बहर हाल ;हमारी शांत, सरल दादी मा उस समय प्रखर सूर्य बन बैठीं और घर के पुरुष वर्ग को आड़े हाथों लेते हुए उन्होने कहा कि जिस अवस्था में ये परिवार है उसमें अगर आप कोई मदद नही कर सकते तो रोड़े न अटकाओ या तो उस लड़की का विवाह सब लोग अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर कराएं अन्यथा अपनी सामरथ्य के अनुसार उसे करने दें –उन्होने कहा कि अगर तब भी आप लोग इस बहिष्कार का निर्णय करते हैं तो मैं भी बहिषकृत होने को तैयार हूँ क्योंकि मैं वहाँ जाके खाना बनाऊँगी भी और खाऊँगी भी –कल्पना कर सकते हैं आप उस समय की और उस ज्योतिपुंज की; मैं अगर आज खुद को सामयिक परिस्थितियों में रख कल्पना करूँ तो इतना साहस खुद में नही पाती -अंत में जीत उनकी हुई और विवाह सम्पन्न हुआ शांति पूर्वक. प्रकृति प्रेम बेहद था- जहा रहती आसपास पेड़ पौधे लगा लेती या ढूंढ लेती ,उनके संसर्ग में रहने के लिए बेटे के घर गईं एक बार तो मकान मालिक द्वारा उनके बगीचे को कटवाने को ले कर धरने पर बैठ गई वो नींव खुदवाते ये पाट देतीं अंत में बड़े पिताजी की अनुरोध करने पर किसी तरह बात बनी. गांधी जी की पूरी तरह समर्थक थीं -अहिंसा और सत्याग्रह उनके हथियार . एक बार कहीं गई थी, ठीक से याद नही कि कहाँ -पीछे कुछ बस्ती थी जहां सूअर पाले जाते थे और खाये भी और शायद उनके बाल नोच कर ,उनका कुछ व्यापार भी होता था . ऐसा होने में सूअर बेहद चिल्लाते थे आवाज़, हमारी नायिका अर्थात हमारी दादी माँ तक भी पहुंची ,फिर क्या था ये दुख उनसे देखा नही गया, हमारे दादा जी तब डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मेम्बर हुआ करते थे उन्हें कहा गया कि इसे बंद कराएं जो कि उनके कार्य क्षेत्र के बाहर की बात थी फिर बाद में कुछ कह सुन कर इसका निवारण हुआ . आप चाहें तो इसे कुछ भी समझ सकते हैं पर मेरी समझ से ये उनके सशक्त व्यक्तित्व का ही पर्याय है . जो सही समझा, उसके पक्ष में खड़ी हुई -पूरी दृढ़ता से -निर्भय, कर्मठ ,जागरूक और दृढ़ प्रतिज्ञ ;जो किया- असहयोग को हथियार बनाया, हमेशा न्याय के पक्ष में खड़ी हुई, मनुष्य हो ,पशु हो या प्रकृति -जरूरत पड़ी तो अपनों का विरोध किया ,खुद श्रम किया और अपनों से कराया भी ;सशक्त नारीत्व /मनुजयतव का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगाभला —
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