दरमियाँ — kavita ...जिस्म अब ख़त्म हो और रूह को जब सांस आये .. मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको .....
दरमियाँ
चलो कहीं दूर चल के मिलते हैं
उजालों और अंधेरों के दर्मियां
शाम और रात के बीच कहीं
झुटपुटा सा अन्धकार हो
हलकी सी रोशनी हो
आदर्शों के इश्तिहार न हों
वर्जनाओं कि दीवार न हो
ना तुम हो, न मैं हूँ; न दुनिया ही के झमेले हों
न पैरों में हो आत्म मंथन की जंजीर
क्या सही क्या गलत की उलझनें
बस मासूम सा एक प्यार हो
जो हो न सका कभी वो इज़हार हो
तुम्हारी बाहों में मैं सुकून पा जाऊं
मेरी आँखों में तुम अपनी वफ़ा पढ़ लो
कोई तो ऐसी जमीन हो आसमान हो
जहाँ तुझसे आके मिलूं मैं
और फिर तुझमें ही फ़ना हो जाऊं
चलो कहीं दूर चल के मिलते हैं
उजालों और अंधेरों के दर्मियां
शाम और रात के बीच कहीं
झुटपुटा सा अन्धकार हो
हलकी सी रोशनी हो
आदर्शों के इश्तिहार न हों
वर्जनाओं की दीवार न हो
ना तुम हो, न मैं हूँ; न दुनिया ही के झमेले हों
न पैरों में हो आत्म मंथन की जंजीर
क्या सही क्या गलत की उलझनें
बस मासूम सा एक प्यार हो
जो हो न सका कभी वो इज़हार हो
तुम्हारी बाहों में मैं सुकून पा जाऊं
मेरी आँखों में तुम अपनी वफ़ा पढ़ लो
कोई तो ऐसी जमीन हो आसमान हो
जहाँ तुझसे आके मिलूं मैं
और फिर तुझमें ही फ़ना हो जाऊं
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