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अंतर्द्वंद

kavita
kavita
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भूल गई थी मैं वो आँखें, जिनसे सिर्फ एक पुजारी देख सकता है, अपने भगवान को; वो आँखें ,जिनमे सिर्फ चाहत हो, एक प्रशंसा हो ।  कभी सोचा नहीं कि  कैसे समय बीतता चला गया ,ज़िंदगी एक मशीन की तरह चलतीरही । शादी के बाईस साल हो गए, बच्चे  बड़े हो गए, बाहर चले गए . ।  पति के लिए रोमांस  का कोई मतलब नही ।  सब कुछ बस शरीर से जुड़ा  हुआ ,मन की तो कोई अहमियत है ही नहीं ,हमेशा देह ही प्रधान रही । कभी सामान्य सी छुअन  भी मन में कितनी तरंगे जागा देती हैं ये शायद एहसास ही नही है उन्हे।  प्यार हमारे बीच कभी हुआ ही नही हुआ  तो सिर्फ व्यापार ,कभी उनकी तरफ से ,कभी मेरी तरफ से ।
आज अचानक ही क्यों सोच रही हूँ मैं ऐसे ,उम्र के इस पड़ाव पर, जहां हमसफर की सबसे अधिक ज़रूरत है अकेली हूँ मैं —–और अब तुम आ गए मुझे मेरी कमी का एहसास कराने के लिए, तुम कहते हो की पूजा करते हो मेरी  तो सोचती हूँ कि किया क्या है ऐसा मैंने तुम्हारे लिए,तुम्हें चोट पहुंचाने के सिवा जिनके लिए किया या करती ही जा रही हूँ वो तो इसे अपना अधिकार समझ सामान्य सा प्रेम प्रदर्शन करना भी जरूरी नही समझते  जबान से कुछ शब्द कभी निकलते भी  हैं एक अपराध बोध  के साथ, जबर दस्ती बिना भावनाओं की छुअन के ,उगले हुए से शब्द जिन्हे सुनकर मन और  भी खालीपन  से भर जाता है
आज मन क्यों बार -बार खींच रहा है तुम्हारी तरफ ;यादें समय के गलियारे से निकाल कर घेर रही हैं मुझे ,वो छोटे से शहर का छोटा सा घर’ एक छत,स्कूल जाने और  वापस आने का एक संकरा सा रास्ता  ओर आते जाते कभी कभी तुम्हें देखना ;रास्ता तुम्हारा भी वही था।  कुछ असामान्य नहीं था बस , एक दिन सब बदल गया,  देखने का नज़रिया भी । आज सोच रही हूँ ,लिख रही हूँ ,आँखें बार बार भर आ रही हैं ।  पर तब तो ऐसा कुछ भी नहीं था  —।
ठीक से याद नही कि क्यों गई थी मैं छत पर, पर वो तो वैसे भी मेरी आदत थी, छत पर टहल के पढ़ने की  इसलिए या कोई और ही कारण था कह नही सकती , हाँ ;ये एक दम स्पष्ट  याद है कि बाल धुले थे मैंने  और अचानक मेरी नज़र कुछ दूर के घर की छत पर गई।  मुझे तो पता भी नही  था कि वो घर तुम्हारा था आज समझ नही पाती कि उतनी दूर से कैसे देखा मैंने ,कैसे पढ़ पायी थी उस नज़र को ,जिसकी सोच भी आज मुझे मेरे खालीपन का एहसास करा रही है । अपनी छत पर तुम ही तो थे सिर्फ मुझे देखते हुए ;तुम्हारी नज़रें मेरे बालों में मानो उलझ सी गई थी ;ओर मैं -उन नज़रों ने मा नो मुझे बड़ा कर दिया एक ही पल में ।
फिर तो आते जाते रोज ही दिखने लगे तुम ,सिमट सी जाती थी अपने आप में  लेकिन तुमने कभी कुछ नहीं कहा ,बस पास से नज़रे झुका कर निकल जाते थे  और कुछ दूर से पलट कर देखते फिर उन्ही  नज़रों से ,जो शायद आज भी मेरे अन्तः स्थल में गहरी धंस सी गई हैं। इतनी अंजान नही थी मैं  आते जाते राह चलते रोमियो को झेलना तो तभी आगया था जब बहुत छोटी थी पर बोलना या जवाब देना मेरी फितरत नही थी । पढ़ने में तेज और मेहनती थी ,एक लक्ष्य था सामने जिसे पाना था ये छोटे मोटे जुमले क्या कर सकते थे मेरा मगर तुम्हारी नज़रें और वो दृष्टि जिनसे साधक देखता है अपने देव को  आज जब तुम कहते हो कि मीरा कैसे बताए कि  उसने कृष्ण को क्यों चाहा तो अपनी ही पारखी नज़र पर गर्व करने को जी चाहता है ,कैसे  देख लिया था मैंने इतना कुछ ,सिर्फ एक दूर की नज़र से मगर न तुमने कुछ कहा —।  और  कहते भी तो क्या होता मैं पाषा ण थी और बहुत ही प्रैक्टिकल   जिसने कभी अपने दिल को दिमाग पर काबू नहीं करने दिया;— लक्ष्य पाना ही था; और पाया भी ।
मेडिकल में चयन होने के बाद  मैंने वो शहर छोड़  दिया  बल्कि उससे पहले ही ,तैयारी के लिए।  नज़रों से दू र  तुम कही  दिमाग के किसी कोने में रह गए । जिंदगी बढ़ गई आगे; मेरा परि वा र भी उस शहर से दूर चला गया। मेडिकल प्रथम वर्ष में किसी अवकाश के बाद कॉलेज पहुंची तो बड़े  भैया साथ थे।  ऑफिस में एक रैजिस्टर्ड पत्रमिला हैरान थी ,नाम भी पहचाना हुआ नही  था खोला तो तुम्हारा पत्र था।  प्रेमपत्र नही  कहूँगी इसे बस भगवान के चरणो में किया गया एक नम्र निवेदन, एक निहायत ही ईमानदार सी कोशिश ओर एक गुजारिश कि  मैं इंतज़ार करूँ तुम्हारा —
–तुमने लिखा था कि मैं शायद तुम्हें नहीं जानती हो ऊँ पर तुम मुझे आते जाते देखते हो और मुझसे विवाह की इक्च्छा ;रखते हो ;तुम इं जीनीयरिंग की ;पढ़ाई कर रहे हो, घर वाले तुम्हारी शादी के लिए ज़ोर दे रहे हैं ;पर तुम सिर्फ मुझसे ही विवाह करना चाहते हो ;अगर मु झे ऐतराज न हो तो वो बात आगे बढ़ाए —मैं ;तो मानो अकस्मात ही गहरे भवर में फंस गई। ;सोचने का समय ही नही था। ;भाई साथ थे , उन्हे कैसे कहती ;और क्या कहती। ;ठीकसे जानती भी नही थी तुम्हें ,बस ;पत्र पकडा ;दिया उन्हें ;चुपचाप।; पढ़ कर कुछ नही बोले कुछ देर तक । मैंने ही उन्हे बताया तुम्हारे विषय में और ये भीकहा कि तुम वाकई शादी में इंटेरेस्टेड हो पर अभी प्रश्न ही नही उठता। ;मेरा पूरा कॅरियर ;सामने था मेरे, फिर किसी इंजीनियर से शादी ;की;तो कल्पना भी नही की ;थी मैंने। ;मेरे मन -नही; दिमाग में, तो डॉक्टर ही मेरा उपयुक्त जीवनसाथी हों सकता था। कैसे संभव था ये –?पत्र भैया को देकर मैं निश्चिंत हो गई । मेरा परिवार उस समय के ;खुले दिमाग लोगो में था और बहुत ही समझदार ओर सपोर्टिव थे मेरे भाई, गुस्से में कभी कोई गलत हरकत ;नहीं करेंगे वो ,मैं जानती थी बादमें कभी शायद ,उन्होने मुझे बताया भी हो कि उन्होने एक पत्र तुम्हें डाला था कि तुम्हें मेरे माता ;पिता से इस विषय में बात करनी चाहिए आगे ;फिर कुछ नही हुआ ,साल बीतते गए बात आई गई हो गई। ;मगर नही बात आई गई नहीं हुई ;मैं चाह ;कर भी निकाल नही पाई तुम्हें अपने दिमाग से, छत पर से मुझे निहारती वो निर्निमेष दृष्टि कितनी बार याद आती ही रही और जब भी आती थी दिल जैसे अचानक ही कुछ पल को रुक सा जाता था । तुम्हारी खामोशी और फिर इतने सालों बाद तुम्हारा ये प्रयास ;तुम्हारी संजीदगी ही दर्शाता था पर मैं करती भी क्या –बचपन से जो बनने का सपना ले कर बड़ी हुई थी उसे छोड़ कर क्या खुश रह पाती मैं –नही मेरा निर्णय ही सही था, जब मैं ही खुश नही तो किसी और को कैसे खुश रख सकती हूँ मैं —-और एक बार फिर मेरे चतुर दिमाग ने मेरे मन पर विजय पा ली। ; मैं ;आगे बढ़ गई मगर पूरी नहीं –अधूरी भी नही सिर्फ कुछ सांसें –जो थम गई थी तुम्हरी नज़रों से टकरा कर, कुछ शब्द ;जो जा नही पाये उस पत्र के साथ बिखर गए थे कही मेरे जेहन में काँच की किरचों जैसे और दरक जाते थे रह रह कर , थम गयी थी ;मैं मानो उस पल में कही एक अपराध बोध सा था , नज़रें चुरा लेती थी मैं ,तब भी तुमने आना नहीं छोड़ा मेरे सामने अपनी ;उन आंखो में एक सवाल सा लेके। ; समय भागता रहा सिवा उन कुछ पलों के—-ज़िंदगी अपनी गति से भागती रही । पढ़ाई ,शादी ,नौकरी, बच्चे सभी कुछ चलता रहा ;और साथ चलता रहा वो पल तुम्हारीआंखों में उलझा हुआ । शादी देखे जाने के प्रकरण में तुम्हारी याद नही आई ऐसा नही कहूँगी मैं मगर कितना समय बीत चुका था ;और तुम क्या बैठे होगे मेरे इंतज़ार में ,अब तक -बिना किसी आश्वासन के खुद को ही मना लिया था मैंने अब फिर आए हो तुम इतने समय बाद मेरी ज़िंदगी में और अनायास ही शामिल होते जा रहे हो मेरी ज़िंदगी में वही पल है आज भी टंगा हुआ सा आसमान में लटके उस अधूरे चाँद की तरह जिसे सिर्फ देखा जा सकता है ओर सराहा जा सकता है पर पाने की कल्पना नाही की जा सकती सच कहूँ तो मेरा अपराधबोध ही फिर से ले आया है मुझे तुम्हारे करीब पहले हम कभी हमने आमने सामने कभी एक दूसरे को आंख भर के नही देखा, देखा तो सिर्फ दूर से- तुम तो सिर्फ निहारते थे जैसे चातक निहारता है आकाश को निरंतर मगर दूर से और मैंने तो सिर्फ स्वयं की ओर आकर्षित एक याचक को ही देखा थ —आज तुमसे बात होती है तो तुम कहते हो कि घंटो तुम खड़े रहते थे मेरे इंतज़ार में । पहलतुमने ही की इस बार ,चाहती तो मना कर देती मगर मेरा अपराध बोध ही लगता है वो अस्त्र बन गया है, मेरे अहम को मारने का कि मैं कभी अपने दिल को दिमाग पर हावी नहीं होने देती —क्यों चले आ रहे हो मेरे जीवन में तुम आज; अब जब कि हम जानते हैं कि इसका कोई अंत नही ,कोई मिलन नही,उसकी कोई उम्मीद भी नहीं । आज भी देखा नहीं है मैंने तुम्हे, सिर्फ आवाज़ ही सुनी है तुम्हारी और तस्वीर में ही देखा है तुम्हें पर न जाने क्यों ,खाली होते ही अनायास तुम्हारा ही खयाल आता है ओर लगता है कि फिर से दिल की धड़कनअपनी गति कुछ पल को भूल सी गई । अब इस उम्र में ये एहसास —! क्या हो रहा है मुझे ?तुम्हारा एक सुखी परिवार है ,बड़े बच्चे हैं और मेरे भी परिवार में लोग रहते हैं और लोग शायद हमें सुखी ही समझते होंगे । मेरी एक आदत है किसी भी चीज का मानसिक विश्लेषण करने की, सोचती हूँ कि क्यों हो रहा है ऐसा-?शायद इसलिए कि शैली मेरे पति बहुत ही अरसिक व्यक्ति हैं आज तक कभी भी मैंने उनके मन में अपने को नही पाया। कितना नाज़ था अपने बालो पर जिनमे कितनों को उलझते मैंने खुद ही देखा था, अपनी आंखो पर जिसकीतारीफ सुनने की आदत सी हो गई थी मुझे,पर कभी भी शादी के बाद इसका जिक्र भी आया हो मुझे याद नही। तरस गई थी मैं उस एक नज़र को जिसकी चाहत हर पत्नी करती है अपने पति से । आज इतने सालो में मैं भूल सी गई थी खुद को और समेट लिया था खुद को एक आवरण में । अपनी तरफ ध्यान देना तो छोड़ ही चुकी थी मैं, क्या सजना क्या संवरना कोई जब देखने वाला ही न हो । हंसी आती है सोच कर ओर मन डर भी जाता है अब फिर से मेरा मन करता है गाने का, गुनगुनाने का तैयार होने का पता नही शैली ने ये बात महसूस की या नही पर मेरा गुस्सा और चिडचिड़ाहट जो आजकल मेरे स्वभाव का अंगथे कुछ कम हो गए हैं, खुश रहने लगी हूँ मैं । और यही खुशी डरा देती है मुझे —क्या इस खुशी का अधिकार है मुझे एक पत्नी के नाते ,एक माँ होने के नाते? क्या ये वो खुशी है- जिस पर मेरा हक है ?तुमसे बातें कर के जरा खुश रह लूँ मैं तो गलत क्या है-?  तुम्हारी नज़रों में मैं आज भी खूबसूरत हूँ मैंने पूछा था तुमसे कैसे पह चान  लिया अपने मुझे इतने सालों में और जवाब मिला तीस क्या साठ साल में भी मैं आपको पहचान लेता।  तुमने  बताया कि भैया का पत्र मिलने के बाद बहुत निराश हो गए थे तुम फिर भी एक बीच के व्यक्ति को डाल कर तुमने मेरी माँ तक कहलवाने  का प्रयास किया  था,नही जानती पर मुझ तक इसकी कोई खबर नही पहुंची ।
अब इतने समय बाद तुमसे मिलती हूँ बातें करती हूँ मगर डर रही हूँ –क्यों –आखिर क्यों बेचैन हो जाती हूँ तुमसे बातें करने के लिए  तुम्हें अपनी दिन भर की बातें बताने के लिए –हम घंटों तक बात कर सकते हैं धाराप्रवाह बिना किसी उलझन के
ऐसा कभी क्यों नही होता शैली के साथ,आज नही ;शुरू से भी कभी हमारा तारतम्य बना ही नही .ऐसा नही कि उन्हे बोलने का शौक नही मगर सुनना —उनकी आदत नही विशेष तौर पर मुझे —-कभी महसूस किया है  तुमने कि  जब कोई बात आप बड़े मनसे सुनाना शुरू करो और दूसरा व्यक्ति उसे अनसुना कराते हुए अपने में ही मशगूल हो जाये तो कितना तिरस्कृत महसूस करते हैं आप ,अपने आप को छला हुआ सा । और चुप हो जाती थी मैं- भीतर कहीं कुछ मर सा गया था । यांत्रिक तरीके से चली जा रही है जिंदगी ,मगर अब फिर से कुछ सांसें लॉट रही है मन में ,कोई तो है जो मुझे पसंद करता है ,मुझे चाहता है ,मुझे सुनना चाहता है –बस इतना ही । तुमसे मिलने की ख़्वाहिश नही मुझे ,मरते हुए मन ने जीते जागते शरीर पर जो निशान छोड़े हैं उनसे तुम्हारा परिचय नही कराना चाहती मैं  ,कोई कभी उसकी नज़रों में नही गिरना चाहताजो उसकी पूजा करता हो —जानती हूँ कि यही कहोगे तुम कि तुम्हारी भावनाएँ किनही शारीरिक परिमाणों में नही बंधी ऐसा भी कही होता है?
man bhee kitna vichitr hai jab jo nahee mila uske liye sochata rahega  तरसता रहेगा और मिलने पर उसे दुनिया के नज़रिये से जाँचना परखना शुरू कर देगा -ये सही है की नही -लोग जानेंगे तो क्या कहेंगे – जैसे कि  आज कल मेरा मन ;कितने सारे प्रश्न हैं उनुत्तरित- जानती हूँ की तुमसे मिलना -नही मिलना तो नही कहूँगी बात करना –हाँ जब भी मौका मिलता है हम बात करते हैं फोन पर ;यही सीमाएँ निर्धारित की हैं मैंने अपने लिए कि  मैं कभी मिलूँ न तुमसे आमने सामने ;मगर फिर भी तुमसे बात करना मुहे अच्छा लगता है ,तुम्हारा अपनी चिंता करना मुझे अच्छा लगता है  -मगर फिर भी एक दुष्चिन्ता, एक अंतर्द्वंद में मन फंसा रहता है कि  क्या ये उचित है ?तुम्हें मुझसे या मुझे तुमसे क्या चाहिए कुछ नही ,सिर्फ अपनी बातें हम बाँट सकें ,किन्तु क्या ये भी समाज की नज़रों में अनुचित नही -?एक मोहर लगी है मुझ पर ,तुम पर।  अपने सारे उततरदायित्वों का निर्वाह करते हुए भी क्या हम इस दोस्ती को बनाए रख कर कुछ अनुचित तो नही कर रहे ?आज इस जमाने में जब बच्चे अपने बॉय फ्रेंड/गर्लफ्रेंड के बारे में मा- बाप से बात करने में संकोच नही करते -क्या हम अपने इस मित्रवत संबंध के विषय में उन्हें बता सकते हैं ?क्या वो इसे वैसे ही उदार भाव से स्वीकार कर पाएंगे जैसे हम उनकी मित्रता को करते हैं ?शायद नही- क्योंकि मा सिर्फ मा नही होती; एक इमेज होती है -एक छाया ,उसका अपना कोई वजूद नही बस एक आदर्श रूप ही होना है उसे -और शैली  जिसने कभी मुझे शायद ठीक से देखने तक की जरूरत महसूस नही की ,कितने सेंसिटिव हो जाएँगे ये जान कर कि  कोई और  है जिसे मुझ में कुछ दिखता है। क्या आप जवाब दे सकते हैं मेरे सवालों का ?क्या कोई जवाब है आपके पास ?क्या मेरा किसी से दोस्ती रखना अपने आत्मविश्वास को बनाए रखने के लिए, गलत है? या क्या ये नैतिक दृष्टि से अनुचित है –जवाब दे सकते हैं तो जरूर दे –औरत इतनी परतंत्र क्यों है खुद से भी आज़ाद क्यों नही वो —-?

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