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एक सवाल

kavita
kavita
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कोई नहीं जानता खुशियों के कदम कब भटक जाएंगे
आंसुओं की राह पे चलते चले जाएँगे
मुसकुराते इन चेहरों पे कतरे अशकों के झिलमिलाएंगे
आबाद हैं ये घर अब तक कल को लु ट भी जाएँगे
कह सकता है कौन कल तलक ये भी आबाद थे
भटकते हैं जो गली -गली ,किसी घर के नूरे चिराग थे
पूछती हैं आँखें ये सवाली बन कर ;
खता क्या हो गई कि घर से हो गए बेघर
पूछो इन सियासतदानों से या मजहब के ठेकेदारों से
कि ख़्वाहिशों पे अपनी घर क्यों मासूमों के जलाते हो
बातें दीन -ओ धरम की  करते हो, क्यों इन पर न तरस खाते हो
दंगों में रोज़ जो मरते हैं ,हिन्दू नहीं मुसलमान भी नहीं वो
दम तोड़ते हैं जो नफरत में, किसी घर के निगहबान है वो
झुलस जाएंगी कितनी कोंपलें, बिना घर की पनाहों के
भटक जाएगी रस्ता, मासूमियत ;बिना सरपरस्तों की छाँव के

कैसे सोते हो चैन से घर जा के तुम ,अपने बच्चों से नज़रें कैसे मिलते हो
हैरान हूँ कि अब तक ज़िंदा हो ,शर्म से मर भी नही जाते हो
रक्तबीज – हो क्या ‘हर हैवा नियत में बढ़ते जाते हो
मरती तो है इंसानियत -तुम तो बस कहकहे लगाते हो।
चेतना

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